कल बस यूहीं समय की नदी पर पतवार चलाते चलाते सब कुछ छोड़ देने को जी किया,
पर फिर अचानक उस कश्ती का ख्याल आया जिसने मुझे उन कठिन लहरों में भी थामे रखा,
उन हाथों का ख्याल आया जिसने मेरे लिए वो सुंदर नज़ारे रचे,
फिर क्या था न पतवार छोड़ी, न ज़िन्दगी, न शुक्रिया करना, न मुस्कुराना।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

Learning to live consciously in 2016

What would a thriving rural space look like?

Reflections from 2019 and Embracing 2020